कुछ
लोगों को बात हजम नहीं होती.
चिढ़ते
फिरते हैं,
"जिसे
देखो मैनेज्मेंट करने चला
है."
इनके
घरों की बत्ती गुल करके
हाथ
में ढिबरी थमा दीजिये,
ये
ले मशालें चल पड़ेंगे.
अहमक
समझते नहीं कि कितनी ज़्यादा
ज़रुरत है इस देश में,
एक
लोकतंत्र में,
मैनेज्मेंट
की,
कितनी
ज़रुरत है
यूनियन
लीडर को मैनेज करने की,
कारखाने
में मरे मजदूर के परिवार को
मैनेज करने की,
अत्यधिक
जानकारी से कुलबुलाते पत्रकार
को मैनेज करने की,
एफ.आई.आर
दर्ज करने वाले पुलिस अफसर
को मैनेज करने की,
कोर्ट
के मुंशी को मैनेज करने की,
जज
को .
. .
सौरी,
सौरी,
गलती
से .
. .
First published in Jankipul, 2 Nov 2015.
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