Monday, 9 November 2015

You’ve got mail

Furtive glances
Rewarded with a flicker

Bated breath
Rewarded with release

Unexpected sender
Rewarded with a curse

Desired sender
Rewarded with a curse

The moment of hope
Stays unrewarded

Goes
Unrewarded


First published in Muse India, Nov-Dec 2015.

On your way

Who's to say
If you're coming up
Or climbing down
As long as you can impress upon them
That you're well on your way


First published in Muse India, Nov-Dec 2015.

Bargain?

Every day I lose a little bit of you from me.
Is this really better
Than losing myself in you a little bit
Every day?


First published in Muse India, Nov-Dec 2015.




McLeodganj

Same same? Sure
But different, yes, learn to spot the difference
Indo. Tibetan. Chinese. 

Before becoming the beatific Buddha, try being the laughing lama.

A meal in a bowl
Why fuss
About laying the table?

Keep a light head about your shoulders, find it in the clouds 
Queer coloured umbrella rainbows all around, when you can see through the clouds

Cars learn patience
Stomping mountain bulls and goats unite
Some incorrigible neighbour will get his just deserts today
Get out of the way.

Tease the schoolboy playing in his mother's shop and he'll spit at you
No, they don't have the miniature buddha you wanted.

Don't be fooled into thinking that the road you went down will be the same one you go up 

And watch out for the hairpin bend.


First published in Muse India, Nov-Dec 2015.


Saturday, 7 November 2015

सौ (मन की) बात की एक बात

भाड़ में गई तुम्हारी निरपेक्षता 
और तेल लेने जाए तुम्हारी कट्टरता.

मैं तो बस दुनिया देखना चाहता हूँ.

चाय का प्याला हाथ में लिए,
गीली पलकों से 
माँ को याद करते हुए,  
तुम सबको भूल जाना चाहता हूँ.


First published in Jankipul, 2 Nov 2015.




Thursday, 5 November 2015

मैनेज्मेंट

कुछ लोगों को बात हजम नहीं होती.
चिढ़ते फिरते हैं,
"जिसे देखो मैनेज्मेंट करने चला है."

इनके घरों की बत्ती गुल करके 
हाथ में ढिबरी थमा दीजिये,
ये ले मशालें चल पड़ेंगे.

अहमक समझते नहीं कि कितनी ज़्यादा ज़रुरत है इस देश में,
एक लोकतंत्र में,
मैनेज्मेंट की,

कितनी ज़रुरत है 
यूनियन लीडर को मैनेज करने की,
कारखाने में मरे मजदूर के परिवार को मैनेज करने की,
अत्यधिक जानकारी से कुलबुलाते पत्रकार को मैनेज करने की,
एफ.आई.आर दर्ज करने वाले पुलिस अफसर को मैनेज करने की,
कोर्ट के मुंशी को मैनेज करने की,
जज को  . . . 

सौरी, सौरी, गलती से  . . . 


First published in Jankipul, 2 Nov 2015.








द्विविवाह

मैं तुम्हारे प्रेम में वफ़ादार नहीं 
तुम अकेले नहीं हो 
हर क्षण मेरे मन में 
अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने वाले।

वैसे हमने बात तो कर ही रखी थी इस बारे में 
कि ऐसा कुछ हुआ 
तो हम शांतिपूर्वक अपनी अलग-अलग राह चुन लेंगे।

पर अब तुम मुझसे दोनों में से चुनने को कहो 
तो ये भी संभव नहीं।

तुम दोनों को अलग नहीं कर सकती। 
मेरे उतने ही करीब हो तुम दोनों,
तुम 
और तुम्हारे ना होने का भय

सो उस दूसरे के साथ जीने की आदत डाल लेना चाहती हूँ
नहीं चाहती कि उससे पीछा छुड़ाने के चक्कर में 
तुम मुझसे छूट जाओ.


First published in Jankipul, 2 Nov 2015.











अनुत्तरित

पिछली गर्मियों में 
अगर तुमने मेरे पसंदीदा प्रेम-गीत ध्यान से सुन लिए होते 
तो इस बारिश मेरे ज़हन में 
उन किरदारों के चेहरे खाली नहीं जाते। 


First published in Jankipul, 2 Nov 2015.








अंतर पहचानें

समाज में रहना है तो शादी करनी होगी। 
हाँ, शादी के अन्दर होने वाले बलात्कार, मार-पिटाई, आदि, ज़़ाती मामले हैं। 

बच्चे पैदा नहीं करोगे तो समाज आगे कैसे बढ़ेगा?
बच्चे अगर माँ-बाप को घर से निकालें, ये भले ही उनका निजी मसला है। 

श्राद्ध-कर्म समाज का नियम है। 
उसका खर्च वहन करने के लिए पैसे नहीं? ये तुम्हारी अपनी दिक्कत है। 

इज्ज़त कमानी है तो समाज की समझ में आनेवाली कामयाबी हासिल करनी होगी। 
उससे तुम खुश हो या नहीं, इस माथापच्ची का वक्त समाज के पास नहीं। 
व्यक्तिगत और सामाजिक में फ़र्क है, क्या इतना भी नहीं समझती?


First published in Jankipul, 2 Nov 2015.

































Tuesday, 3 November 2015

कलम और कूटनीति

पत्रकारिता की डिग्री ले ज्योंही हमने पद पर मोर्चा संभाला,
संपादक ने एक नेताजी की वर्षगाँठ पर लिखने का भार डाला.


भोजस्थल पर पहुंच हमने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई,
तो लगा मानो पूरी की पूरी इन्द्रसभा हो धरती पर उतर आई.


बाहर कतारबद्ध खड़ी थीं नाना प्रकार की देशी-विदेशी गाड़ियाँ,
व मखमली दूब के उद्यान में कहकहे लगातीं, लाल-चम्पई चंदेरी-कोटा में महिमामयी नारियाँ.

और एक दृश्य का अवलोकन कर तो मैं हुआ विशेष रुप से क्षुब्ध,
जब एक सज्जन ने मदिरा-पात्र ऐसे रिक्त किया, जैसे तप्त धरणी पर जलबिंदु हो गयी हो लुप्त.


इतने में साक्षात् नेताजी पधारे, “आपकी प्रतीक्षा में तो हम बूढ़े हो गए,”
यूँ कहकर अपने कर-कमल जोड़ वे दुहरे हो गए.


कभी हम आपको, कभी अपने घर को देखते हैं,” इस पंक्ति को स्वरचित सा दुहरा कुछ खिंच सा गया उनके अधरों का बाँया कोना,
और सचमुच, जो साहस बटोर उनके शीश महल की ओर दृष्टि फेरी, तो हमें भी आ गया अपने स्टूडियो अपार्टमेंट की स्थिति पर रोना.


तभी नेताजी के अनुभवी चक्षुओं को अपने मुख के भावों की समीक्षा करते देख मैं झेंपा,
व अपनी अपदस्थ्ता को छिपाने हेतु उनकी और प्रश्न का एक तीर फेंका.


सुना है आपने असामाजिक तत्वों को शरण दी है?”
वे बोले, “अजी, हमने तो आजीवन गांधीजी कि स्तुति की है.


पाप से घृणा करो, पापी से नहीं’, बापू ने तो यही संदेश दिया है।
तभी तो इन पापियों के शुद्धिकरण का जिम्मा हमने अपने सर लिया है.”


लोग यह भी कहते हैं कि . . .”, पिछली बार का प्रत्युत्तर सुन मेरी आवाज़ थी अब तक लड़खड़ाई.
अब छोड़िए भी लोगों की," एक निश्छल स्मित बिखेर उन्होंने हाथ में सुनहरी कलम थमाई.


अपनी ग्रीवा के भीतर सोमरस डालते हुए, एक प्रसिद्ध  चलचित्र की स्मृति उन्हें विभोर कर गई,
“‘क’ से कलम होती है, ‘क’ से ही कूटनीति, क’ से कभी तो हमें सेवा का अवसर दीजिएभई.”


अपनी इस व्यंग्योक्ति पर लगाया उन्होंने ऐसा ठहाका,
मानो सीधे चंद्रमा पर फहरा आऐं हो अपनी विजय पताका.


बोले, “आइए, भीतर चलें, आप कलमकारों की हम ही कर सकते हैं सच्ची कद्र,
और इस बार मुझे भी उनका आमंत्रण ठुकराना प्रतीत हुआ कुछ अभद्र.


अतः बढ़ चला उनके घर की और कुछ सहमते, ठिठकते हुए,
कभी उनको, कभी उनके घर को, कभी स्वयं को देखते हुए.


(शिवानी [गौरा पंतजी की स्मृति में)

First published in Jankipul, 2 Nov 2015.



















Monday, 2 November 2015

अब मेरी बारी

जब तुमने हमेशा मुझे टुकड़ों में ही देखा है,
जब तुम्हारे लिए मैं कभी संपूर्ण रही ही नहीं,

तो ये लो,
संभालो मेरा ये टुकड़ा,
मेरा स्तन
जिसे मैं हवा में उछाल रही हूँ.

फिर देखते हैं 
अगर आसमान से गिरती लपटों में झुलसे तुम्हारे हाथ 
कुछ और टटोलते हुए 
वापस आते हैं.


First published in Jankipul, 2 Nov 2015.












Sunday, 1 November 2015

प्रतिकार

जब अपने डर से पनपी नफरत में तुम मुझे कुछ भी कहोगे, मेरे साथ कुछ भी करोगे
जब मुझे मलिन करने की अन्धाधुन्ध कोशिश में
तुम्हारे भीतर स्थित काजल कोठरी के लिचलिचेपन की कलई खुलेगी
तब तुम्हारी कुत्सित मजाल देख मेरे क्रोध की पाश्विक चीखें आसमान को चीर के रख देंगी 
और मेरी भिंची मुट्ठियों में होगी तुम्हारे पैरों के नीचे की ज़मी

तुम हमेशा मुझे याद दिलाते थे कि मुझमें और तुममें कितना फ़र्क है.  
मैं हमेशा खुद को याद दिलाती थी कि ख़ुद में और तुममें फ़र्क बनाए रखूँ  . . . 

कम से कम इतना फ़र्क,
कि ख़ुद को बिगाड़ न बैठूँ.  

याद रहे,
इस बार मैं वो फ़र्क भूल जाऊँगी.

क्योंकि अगर अब तक तुमने मुझे बनने नहीं दिया 
तो अब शायद इस बिगड़ने में ही मेरा बनना हो.


First published in Jankipul, 2 Nov 2015.


























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