पत्रकारिता
की डिग्री ले ज्योंही हमने
पद पर मोर्चा संभाला,
संपादक
ने एक नेताजी की
वर्षगाँठ
पर
लिखने का भार डाला.
भोजस्थल
पर पहुंच हमने चारों ओर दृष्टि
दौड़ाई,
तो
लगा मानो पूरी की पूरी इन्द्रसभा
हो धरती पर उतर आई.
बाहर
कतारबद्ध खड़ी थीं
नाना प्रकार की देशी-विदेशी
गाड़ियाँ,
व
मखमली दूब
के
उद्यान में कहकहे लगातीं,
लाल-चम्पई
चंदेरी-कोटा
में महिमामयी नारियाँ.
और
एक दृश्य का अवलोकन कर तो मैं
हुआ विशेष रुप से क्षुब्ध,
जब
एक सज्जन ने मदिरा-पात्र
ऐसे रिक्त किया,
जैसे
तप्त धरणी
पर जलबिंदु हो गयी हो लुप्त.
इतने
में साक्षात् नेताजी पधारे,
“आपकी
प्रतीक्षा में तो हम बूढ़े
हो
गए,”
यूँ कहकर
अपने कर-कमल
जोड़ वे दुहरे हो गए.
“कभी
हम आपको,
कभी
अपने घर को देखते हैं,”
इस
पंक्ति को स्वरचित
सा दुहरा कुछ
खिंच सा
गया
उनके अधरों का बाँया कोना,
और
सचमुच,
जो साहस
बटोर उनके शीश महल की ओर
दृष्टि
फेरी,
तो
हमें भी आ गया अपने स्टूडियो
अपार्टमेंट की स्थिति पर रोना.
तभी
नेताजी के अनुभवी चक्षुओं को
अपने मुख के भावों की समीक्षा
करते देख मैं झेंपा,
व
अपनी अपदस्थ्ता को छिपाने
हेतु उनकी और प्रश्न का एक तीर
फेंका.
“सुना
है
आपने असामाजिक तत्वों को शरण
दी है?”
वे
बोले,
“अजी,
हमने
तो आजीवन गांधीजी कि स्तुति
की है.
‘पाप
से घृणा
करो,
पापी
से नहीं’,
बापू
ने तो यही संदेश दिया है।
तभी
तो इन पापियों के शुद्धिकरण
का जिम्मा हमने अपने सर लिया
है.”
“लोग
यह
भी कहते
हैं कि .
. .”, पिछली
बार का
प्रत्युत्तर सुन मेरी आवाज़
थी अब
तक लड़खड़ाई.
“अब
छोड़िए
भी लोगों की," एक
निश्छल
स्मित बिखेर उन्होंने हाथ
में सुनहरी कलम थमाई.
अपनी
ग्रीवा के भीतर
सोमरस
डालते
हुए,
एक
प्रसिद्ध
चलचित्र
की स्मृति उन्हें विभोर कर
गई,
“‘क’
से कलम होती है,
‘क’
से ही कूटनीति,
‘क’
से कभी तो हमें सेवा का अवसर
दीजिए, भई.”
अपनी
इस व्यंग्योक्ति पर लगाया
उन्होंने ऐसा ठहाका,
मानो
सीधे चंद्रमा पर फहरा आऐं हो
अपनी विजय पताका.
बोले,
“आइए,
भीतर
चलें,
आप
कलमकारों की हम ही कर सकते
हैं सच्ची कद्र,
और
इस बार मुझे भी उनका आमंत्रण
ठुकराना प्रतीत हुआ कुछ अभद्र.
अतः
बढ़ चला उनके घर की और कुछ
सहमते,
ठिठकते
हुए,
कभी
उनको,
कभी
उनके घर को,
कभी
स्वयं को देखते हुए.
(शिवानी [गौरा पंत] जी की स्मृति में)
First published in Jankipul, 2 Nov 2015.
1 comment:
बहुत ही रोचक और सत्य !
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