जब
अपने डर से पनपी नफरत में तुम
मुझे कुछ भी कहोगे,
मेरे
साथ कुछ भी करोगे,
जब
मुझे मलिन करने की अन्धाधुन्ध
कोशिश में
तुम्हारे
भीतर स्थित काजल कोठरी
के लिचलिचेपन की कलई खुलेगी,
तब
तुम्हारी कुत्सित मजाल देख
मेरे क्रोध की पाश्विक चीखें
आसमान को चीर के रख देंगी
और
मेरी भिंची मुट्ठियों में
होगी तुम्हारे पैरों के नीचे
की ज़मी.
तुम
हमेशा मुझे याद दिलाते थे कि
मुझमें और तुममें कितना फ़र्क
है.
मैं
हमेशा खुद को याद दिलाती थी
कि ख़ुद में और तुममें फ़र्क
बनाए रखूँ .
. .
कम
से कम इतना फ़र्क,
कि
ख़ुद को बिगाड़ न बैठूँ.
याद
रहे,
इस
बार मैं वो फ़र्क भूल जाऊँगी.
क्योंकि
अगर अब तक तुमने मुझे बनने
नहीं दिया
तो
अब शायद इस बिगड़ने में ही मेरा
बनना हो.
First published in Jankipul, 2 Nov 2015.
1 comment:
ठीक सा है। विद्रोही सुर है।
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