मुझे भागती हुई औरतों के सपने आते हैं
दीवारों को फाँदते, लगातार हाँफते
थाने के सामने दम भर ठहरते
और फिर से भागते,
याद करके, “ओह, इनसे भी तो भागना था”
ये वो सपना नहीं
जिससे उठकर कहा जाए
“शुक्र है, बस एक सपना था,”
ऐसा सच है
जो कई सपनों को लील गया
मैं जानती हूँ मैं वो सब औरतें हूँ
जानती हूँ वो मुझे बचाने के लिए भागती हैं
अब मैं उनके भीतर से लपक
उनके सामने आ जाना चाहती हूँ
देना चाहती हूँ उनको विराम
चाहती हूँ वो मेरी पीठ और कंधों पर
सवार हो जाएँ
मैं उनको लेकर उस दंभ से चलूँ आगे
जिसके खिलाफ़ हमें चेताया गया था
हर बार जब हमने दृढता दिखाई
एक-एक कदम पर हिले धरती
जगाती उन सभी को
जो उसमें ठूँसी गई थीं
उन के दिल पर रखा एक-एक पत्थर फूटे
फाड़ता हुआ कानों पर पड़े परदे
हमारे दाँत मुँह से कहीं आगे तक निकले हों
गर्भावस्था के दौरान किसी कमज़ोरी से नहीं
इस बार
अधिकार से गड़ने को हर लूटे गए निवाले में
आँखों का काजल फैल चुका हो
नज़रबट्टू बन उन गालों पर
जिन पर कालिख फेंकने वो बढ़े थे
जब उनकी दी गई लाली पोतने से
हमने मना कर दिया था
हम अट्टहास करें, भयावह दिखें, औक्टोपस बनें
शरीर से छोड़ते स्याही की पिचकारियाँ
उन पर साधे
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