Wednesday, 12 December 2018

मान अर्जन


तुम्हारे होने के समय से ही 
तुम पर बोझ बना रहा 
साबित करने का कि 
इतना बुरा भी नहीं है 
तुम्हारा होना।

हमेशा तुम तत्पर रही 
बनावट स्वीकारने को 
ताकि तुम्हारे होने का तथ्य फीका पड़ जाए 
जैसा-बनाया-जाए-वैसा-बन-जाने 
कि कबिलियत के सामने।

सोचती रही कि सब मानती रही 
तो मानी जाओगी, मिलेगी इज्ज़त,
अपनी और सबकी इज्ज़त बचाकर-
बाहर न जाकर 
प्रेम में ना पड़ कर 
इच्छाओं से अनजान बन कर।

पर अगर परिवार की इज्ज़त थी 
तो दान क्यों की गई?
अगर दूसरे घर की इज्ज़त बनी 
तो खिल्ली क्यों उड़ाई गई तुम्हारे 
पुराने घर की (मना करने पर भी जिसे तुमने अपना माना था),
स्स्साले और ससुरे की (साली और सास तो खैर तुमसे ज़्यादा अलग नहीं थीं)?

ओह, हाँ, इसका गणित अब समझ आया:
उधर की इज्ज़त इधर आ गई,
तो उधर की इज्ज़त गई। 
पर फिर तुम इतने सालों से उधर 
किस इज्ज़त की पहरेदार बनी बैठी थी?

चलो, अब इधर आ गई हो 
तो मिलेगी न तुम्हें इज्ज़त?
पर ये क्या, तुम तो अभी भी 
उधर की ही समझी जा रही हो 
जिधर की नहीं रही अब कोई इज्ज़त,
वो दान कर दी गई,
और इसलिए तुम्हारी भी नहीं रही।

लेकिन इधर-उधर के बाहर भी एक दुनिया है 
जो शायद समझे तुम्हारे तप को,
इनाम दे तुम्हारे बलिदान का, इज्ज़त दे तुम्हें।
पर वहाँ तो तुम्हारे शरीर का हर अंग 
बन चुका है एक गाली,
माँस के लोथड़े उछाले जा रहे हैं 
फुटबॉल की तरह गिद्धों के समूह में।

लेकिन एक आखिरी मौका है इज्ज़त कमाने का 
जांघों को खोलकर 
अगर तुम मारो उनके लोहे से एक आसमानी लात,
सिखा दो,
खेल कैसे खेला जाता है।


First published in Yuddhrat Aam Aadmi, 2018.




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