Tuesday 22 January 2008

बिना दीवारों के घर

पिछले दिनों राजस्थान में सूचना के अधिकार एवं लोकतंत्र पर हुए राष्ट्रीय युवा सम्मेलन में निरंतर यह चर्चा का विषय रहा कि राजनीति मे युवाओं की अधिकतम भागीदारी हो. क्योंकि यह बात स्वयं युवाओं ने उठाई , यह प्रमाणित हो गया वे अपने दायित्व को लेकर पूर्णतः सजग हैं. सो अब उन्हें यह उपालंभ देना गलत होगा कि अपने व्यक्तिगत जीवन के अलावा वे दुनिया में हो रहीं अन्य सभी गतिविधियों के प्रति उदासीन हैं.

पर इन सभी चर्चाओं ने मन में एक भय भी उत्पन्न किया, संभवतः इसलिए कि समय के पहिये में हम सब कभी  कभी उसके निचले हिस्से में आएंगे. डर है कि युवा सशक्तिकरण की इस मुहिम में कहीं हम अपने वरिष्ठों को दरकिनार  कर दें. सम्मेलन में भाग लेने आए युवक-युवतियों को देखकर यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि युवा आज भी अपने बड़ों का सम्मान करना बखूबी जानते हैं. पर जैसे हमें अपने बुजुर्गों से कई बार यह शिक़ायत रहती है कि वे हमें स्नेह तो देते हैं पर ज़िम्मेदारी नहीं, कुछ ऐसी ही भूल कि पुनरावृति होने का खतरा हम युवाओं की ओर से भी है.

हम अपने बड़े भाई-बहनों के त्यक्त वस्त्र तो ग्रहण कर सकते हैं परन्तु अनुभव की पाठशाला में प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही उत्तीर्ण होना पड़ता है, दूसरों के बनाए नोट्स पढ़ कर नहीं. इसके बावजूद भी कुछ सबक ऐसे हैं जिन्हें अपने तजुर्बेकार परिजनों के शिष्यत्व में सीखने में ही फायदा है. यदि कोई हमें मार्ग के अवरोधों को दर्शा कर चेता दे, तो यह कहना कहाँ की अक्लमंदी होगी कि हम तो गड्ढे में गिरकर ही निश्चित करेंगे चोट लगती है या नहीं? लेखिका शिवानी का भी कथन है, 'बुद्धिमान उद्योगी मूलधन को रखकर उसमें जोड़ता जाता है.' फिर आजकल तो विद्यालय में नामांकन के पूर्व भी वर्णमाला घर से सीख कर जानी पड़ती है. हाँ, यदि कोई नई गलतियाँ कर नवीन राहों की खोज करे, तो निस्संदेह उसे प्रोत्साहन मिलना चाहिऐ.

युवा पीढ़ी ने हर युग में पूर्वाग्रहों पर प्रश्नचिंह लगाए हैं; उनका खंडन किया है. फिर हम तरीख बदलने वाले कागज़ पर छपी तारीखों से क्यों किसी का जीवन सीमाबद्ध करें? और यदि युवावस्था की उपाधि ही सर्वोत्तम है तो अन्य पुरस्कारों की भांति इसका वितरण भी इस नियम पर आधारित होना चाहिऐ कि किस प्रतिभागी ने कितने परिश्रम, उर्जा  उत्साह का प्रमाण दिया है.

जब हम न्याय-समानता को आधार बना नव-निर्माण का संकल्प लेते हैं ,तो वह समानता केवल धर्म, जाति,लिंग, वर्ग आदि की ही नहीं बल्कि आयु की भी होनी चाहिऐ. इस समावेश के अभाव में बनाई गई दुनिया की कल्पना करते हुए मन्नू भंडारी कि पुस्तक का शीर्षक बिना दीवारों के घर ध्यान में आता है। वह नव सृजित आवास कुछ ऐसा ही होगा,जिसकी छत को टिकाने के लिए मजबूत खम्भे तो होंगे पर टेक लगाकर बैठने के लिए दीवारें नहीं, जिसमे बसेरा करते होंगे राकेश के आधे-अधूरे पात्र.

First published in Diamond India.





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