पास
जब खिलौने नहीं थे,
हम
चोर-सिपाही
खेलते।
झूठमूठ
की बंदूक से
कभी
तुम मरते,
कभी
मैं।
अब
सचमुच के हैं तमंचे,
हम
अब भी होते दो हिस्से।
पकड़म-पकड़ाई
का अब भी दौर,
बस
खेल रहा कोई और।
First published in Indian Cultural Forum, 9 Dec 2016.
1 comment:
I envy your ability.
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