Monday, 1 January 2018

भले घर की लड़की

भेंट की जाती है 
पुरुष को,
उसके साथ 
पाई नहीं जाती।
अपने भीतर के वेग को 
नाखूनों से भेद 
सिकोड़, मरोड़ देती है। 
उसकी जांघों, तकियों, कपड़ों, कागज़ों में 
सबूत मिलते हैं 
उसकी गड़ी उंगलियों के निशान के। 
हर काम की तरह 
बड़ी ही शांति से
अपने नवजात दिवास्वप्नों को 
नमक चटा अंतिम नींद सुलाना भी जानती है वो।
उसकी नपी मुस्कान देख 
चिड़िया के चहचहाने का सा एहसास होता है,
जिसकी भाषा समझने की ज़रूरत 
महसूस नहीं होती 
पर सुनकर लगता है,
चलो, सब ठीक है।



First published in Kathadesh, November 2017.


4 comments:

Yogi Saraswat said...

बहुत खूबसूरत शब्द !!

'एकलव्य' said...

आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद ब्लॉग पर 'शुक्रवार ' ०५ जनवरी २०१८ को लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



दिगम्बर नासवा said...

शब्दों के माध्यम से बहुत कुछ कह गए आप ..
गहरी रचना ...

ankita said...

आप सब का बहुत शुक्रिया।

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