Friday, 26 January 2018

गोल घर

चकरघिन्नी चकरी चकरम,
गोले कितने भी लगा लोवहीं पहुँचते हम.
डगमग ख़ुद को पाकर भी कहाँ मैं डरती हूँ,
झटपट जाकर पहले तो कुर्सी पकड़ती हूँ.
माँपा के कमरे में भले कुर्सी नहींबस खाट,
पर बहस से जो सर घूमेतो क्यों न सँभलते पकड़ के हाथ?


First published in Jankipul18 Feb 2016.



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