Friday, 15 June 2018

श्रीमती जी नहीं


एक दिन फेसबुक पर एक पुरुष मित्र ने मुझे एक वीडियो में टैग किया। लिंक खोलने पर मैंने देखा कि फिल्म में कई मर्द उन सारी चीजों के लिए माफ़ी माँग रहे थे जो औरत होने के नाते हमें इस समाज में झेलनी पड़ती हैं। हाल में इंटरनेट पर चले#metoo अभियान में भी कई मर्दों ने अपनी महिला दोस्तों का साथ दिया। 

ऐसे कई पुरूष हैं जो नारीवाद से डरते नहीं दिखते। उनसे बात करके लगता है कि वे औरत-मर्द के भेद-भाव को खत्म करने की ज़रूरत को समझते हैं। बराबरी के इस आंदोलन में शामिल होने की कोशिश भी करते हैं। फिर भी ज़बान कभी-कभी फिसल जाती है, वे कुछ ऐसा कह या कर जाते हैं जो इस बराबरी की मुहिम में ठीक नहीं बैठता और आप इस तरफ़ उनका ध्यान आकर्षित करते हैं। 

आप सोचते हैं कि एक सुलझे हुए इंसान होने के नाते वो खुले मन से इस पर आपसे चर्चा करेंगे। आपकी उम्मीद ये नहीं कि वे समस्या के हर पहलू से पहले से वाकिफ़ हों। आप इस आस में हैं क्योंकि वे समझदार और संवेदनशील हैंवे ये मानेंगे कि जिनकी आवाज़ जातिधर्मजेंडर जैसे सामाजिक ढाँचों की वजह से हमेशा बुलंद रहीअब उन्हें कमरे में थोड़ा पीछे बैठकर दूसरों की आवाज़ को सब्र से सुनना होगा (हाँलाकि ये कतई ज़रुरी नहीं कि हाशिए वाले हमेशा सही ही हों)। पर आपके ऐसे कोई भी सवाल उठाने पर इनमें से बहुत लोग बिफ़र पड़ते हैं, "अब ये हद से ज़्यादा हो रहा है।"

हदें भी उनकी बनाई हुईकम-ज़्यादा भी उनका। उस पल में वे आपके हमसफ़र नहीं होते जो कुछ समय पहले तक आपसे कदम-से-कदम मिला कर "लक्ष्य को हर हाल में पाना हैगुनगुना रहे थे। उनको ये वहम हो जाता है कि आप उन्हीं की पीठ के ऊपर छलाँग मारकर उन्हें पछाड़ने के मंसूबे बना रहे हैं। उस वक्त वे एक झुँझलाए हुए धनवान और आप एक लालचीएहसानफ़रामोश याचक बन जाते हैं। 

जाति/धर्म के मामले में भी ये बहुत होता है। पीढ़ियों से ऊँचे दर्जों पर बैठे लोग उन लोगों के हकों को लेकर नियम और सीमाएँ बनाते हैं जो उतने ही लंबे समय से शोषित रहे हैं। ज़ाहिर है कि पितृसत्ता/सामंतवाद का ये संदेश महिला या पुरुषकिसी के भी ज़रिए आप तक पहुँचाया जा सकता है।

अक्सर इस खीज से गुज़री हूँ जब औरत-मर्द की ग़ैर-बराबरी का विरोध करते हुए मुझे बताया गया है कि मैं फ़िज़ूल बातों पर वक़्त की ऐसी-तैसी कर रही हूँ और "बड़ेमुद्दे मेरे हाथों से फिसले चले जा रहे हैं। यहाँ एक "छोटाउदाहरण देना चाहूँगी ये दर्शाने के लिए कि क्यों नारीवाद "छोटीबातों के लिए भी इतना लड़ता है।

एक साहित्य महोत्सव में कई पुरुष लेखकों और कुछ महिला लेखकों को बुलाया गया। प्रचार सामग्री में पुरुषों के केवल नाम थे। जो औरतें थी उन सबके नाम के आगे "श्रीमतीलगा था। अपने नाम के आगे भी ये देखकर मेरा सर क्यों भन्नाया?

इस सूची में जब कोई पुरुषों का नाम पढ़ता तो उसे इस क्रम में ये जानकारी प्राप्त होतीअमुक नाम का लेखक इस सम्मेलन में आनेवाला है। महिलाओं का नाम पढ़कर इस क्रम में ये पता लगताएक विवाहित महिलाजिसका नाम . . . हैऔर जो एक लेखक "भी" (विवाहित होने के बादहैसम्मेलन में आनेवाली है।

पुरुष की पहचान के लिए सिर्फ़ "नाम (और कामही काफ़ी है"। और एक महिला के बारे में सबसे पहले ये जानना ज़रूरी है कि वो एक पुरुष से किस प्रकार जुड़ी (या अन-जुड़ीहै। ये बात मेरे लिए बिलकुल नाक़ाबिले बर्दाश्त है और रहेगी। इसको लोग छोटा या मोटाजैसा भी मसला आँकें ये उन पर है। मैं इसे तवज्जो देती रहूँगी।

हाँये ज़रूर है कि कार्यक्रम संचालक ने इस दिक्कत को समझा और आगे इसे दूर करने की कोशिश की। पर कई पुरुषों ने जब इस किस्से को सुना तो तुरंत समझाने लगे कि कैसे ये एक छोटे मामले को तूल देना हुआऔर किस तरह उनका ज्ञान मेरे जिये गए अनुभव से बढ़कर है। 

कुछ ऐसा ही हुआ मेरे ब्रह्म समाजी विवाह को लेकर। हमारा विवाह एक "आचार्यसंपन्न करानेवाले थे। एक बड़े दफ़्तर में ऊँचे पद पर काम करनेवाले वे हल्की मुस्कान, धीमी आवाज़, कुर्ते-पायजामे वाले सज्जन अपने शीतल स्वभाव के कारण हमें तुरंत भा गए। काफ़ी गर्व से उन्होंने बताया कि कैसे ब्रह्म समाज में औरत-मर्द को ऊपर-नीचे नहीं रखा जाता। उन्होंने नमूने के तौर पर किसी के विवाह की पत्रिका दी जिसमें विवाह रीतियों को समझाया गया था। आनेवाले दिनों में मेरा साथी आचार्य से ईमेल और फोन पर जुड़ा रहा। हमने कुछ वचनों-रीतियों में बदलाव किए जिससे उन्हें कोई परेशानी नहीं थी।

शादी के कुछ दिनों पहले मैंने देखा कि एक प्रतिज्ञा में "भाईचाराशब्द का प्रयोग किया गया था। मैं वैसे औरतों के बारे में चाहे जितना भी सोच लूँऐसे किसी शब्द को पढ़ने-सुनने पर उस चित्र में मैं महिलाओं की कल्पना नहीं कर पाती। इसे बदलने के लिए झिझक और विनम्रता के साथ आचार्य से बात की। (झिझक इसलिए क्योंकि नारीवादी होने से किसी बुज़ुर्गया पुजारी जैसी हस्ती को, खासकर अगर वो मर्द होको नाराज़ करने का बचपन में पढ़ाया गया ड मन से पूरी तरह नहीं गया।मेरी बात सुन वे कुछ झल्ला कर बोले, "भाषा ऐसी ही होती है। तुम भाषा को नहीं बदल सकती। अगर तुम्हारे पास बेहतर शब्द है तो तुम बताओ।
मैंने उनसे ये नहीं कहा कि भाषा ठंडी हवा के मासूम झोंके की तरह यूँ ही इधर-उधर टहलटी नहीं पाई जाती, सोच-समझ कर गढ़ी जाती है। उसका एक इतिहासएक राजनीति होती है। मैंने बस कहा कि मैं कोई और शब्द ढूँढ़ने का प्रयास करूँगी। थोड़ी देर बाद जब मैंन "अपनापनशब्द सुझाया तो वे तुरंत मान गए। 

क्या शुरू में वे इसलिए नाराज़ हुए थे क्योंकि हम तीन-चार बार भाषा में संशोधन करवा चुके थे? या अगर पहले की तरह मेरा साथीएक पुरुषउनसे इस बारे में बात करता तो उनका रवैया कुछ और होता

जब लोग अपनेआप को किसी सोचसिद्धांत या अंदोलन का समर्थक बताते हैं तो ये उम्मीद ग़लत है कि समर्थन पानेवाले केवल एहसान मानें और उनके तरीकों पर सवाल न करें। ये सही नहीं कि वे हमारे महसूस किए हुए सच को छोटा बताएँ, ख़ासकर तब जब उनके-हमारे तजुर्बे बहुत अलग हैं।  

ऑस्ट्रेलिया की ऐक्टिविस्ट लीला वॉट्सन ने बहुत पते की बात कही है, "अगर तुम यहाँ मेरी मदद करने आए हो तो तुम अपना समय बर्बाद कर रहे हो। पर अगर तुम इसलिए आए हो क्योंकि तुम्हारी मुक्ति मेरी आज़ादी के साथ जुड़ी हुई हैतो आओसाथ मिलकर काम करें।"


First published in Samayantar, Jun 2018.













3 comments: