दिल्ली में कई साल एक जगह रहने के बाद नए मोहल्ले में मैं खुश थी कि कॉलेज की दोस्त पड़ोसी बन गई। गाड़ी से उसके घर जाने पर मुश्किल से पाँच मिनट लगते थे। पिछले साल एक रात उसके यहाँ खाना और खूब सारी बातों के बाद मुस्कुराती हुई मैं अपनी गाड़ी उसके अपार्टमेंट से निकाल रही थी। सड़क पर आई ही थी कि पास से शोर मचाती एक बाईक निकली और साथ में आई बाईक चालक के चिल्लाने की आवाज़: "12 बजे रात को घूमने निकली है?"
घटना 2016 की है। यानि निर्भया के साथ की गई हिंसा के चार साल बाद। दिल्ली समेत देश के कई इलाके में हुए आंदोलन-प्रदर्शन के बाद भी एक औरत का रात में बाहर होना समाज को उतना ही नागवार था।
इस किस्म के बुज़दिल बाईकवालों को कॉलेज के ज़माने से देखते आई हूँ। कोई फ़ब्ती कसना और दुम दबा कर उड़ लेना। तिस पर भी सोच ये कि वो लोग बहादुर हैं। कॉलेज में अपने दोस्तों के साथ टहलते हुए इन कायरों की आदत हो गई थी। बेबस रहना मंजूर नहीं था इसलिए मुट्ठियों में रास्ते पर पड़े कंकड़ भर के चलने लगे। कभी मोटरसाइकिल के पहिए के आरों पर कंकड़ कि टनक सुनाई देती तो कुछ तस्सली मिलती कि उनको कुछ तो जवाब दिया।
इस बार मैं गाड़ी में थी, जिसे कई लोग औरतों के लिए पैदल चलने या बस में सफ़र करने से ज़्यादा सुरक्षित मानते हैं। हाथ खाली थे, उन्हें ही हवा में घुमा कर मैंने प्रश्नचिन्ह बनाया कि क्या मतलब है उनकी बद्तामीज़ी का। बाईकवाले ने देखा या नहीं पता नहीं। एक बार फिर वार सहकर रह जाने के गुस्से में मैं दाँत भींचती रह गई।
लोग कई बार पूछ्ते हैं, "दुनिया भर में घूमती रहती हो, डर नहीं लगता?" जब बिना किसी गलती के रोज़ डर कर रहना पड़े तो वो डर गुस्सा बनकर फट पड़ता है। डर से पैना बन जाता है नाइंसाफी का काँटा जो दिल को दिन-रात भेदता रहता है। सवाल सर झुका कर साँस लेने का नहीं, सर उठा कर ज़िंदा रहने का बन जाता है।
जो बाईक पर सवार था वो सिर्फ़ एक चेहरा था, जो अँधेरे में दिखा भी नहीं। उसके कंधे-बाजू बन उसे ताकत देते समाज के कई लोग थे। उन सबके अन्याय के खिलाफ़ जो विद्रोह मन में उबल रहा था उसके चलते मैंने ठाना कि अब तो घूम कर ही जाऊँगी, डर कर तेज़ी से घर नहीं भागूँगी।
धीरे-धीरे गाड़ी चलाते हुए घर की तरफ़ बढ़ी। सड़क पर और भी लोग, बल्कि यूँ कहना चाहिए कि और भी मर्द, थे। मैं उन सबके बीच से आराम से निकलना चाहती थी। सड़क पर उतने ही अधिकार और आत्मविश्वास से चलना चाहती थी जितना वो लोग जो गाली देते समय माँ को याद करते हैं और सड़क पर अपना हक़ जताने की बात पर बाप को। तभी कोई ये नहीं पूछ्ता, "सड़क तेरी माँ की है?" सड़क कभी माँ या बहन की कहाँ हुई है, उनके हिस्से में तो हैं घर-आँगन, वो भी तब तक जब तक वो वहाँ की तुलसी बने रहें।
घर पहुँच कर दिमाग़ ठंडा करके सोचा कि निर्भया या उसके पहले और बाद हुई गाँव-शहर में औरतों के खिलाफ़ हिंसा की घटनाओं में कोई अद्भुत या अपार बदलाव नहीं दिखता। पर बाईकवाले की आवाज़ में जो बौखलाहट थी वो एक ऐसे बदलाव का संकेत थी जिसे वो पचा नहीं पा रहा था। औरत होकर बाहर निकली है, वो भी रात में, और गाड़ी चलाती हुई?!
जिन्हें ये सिखा कर बड़ा किया गया कि मर्द होना वो सब कुछ है जो औरत होना नहीं है, उन्हें औरतों को तथाकथित "मर्दानी" भूमिकाओं में देखकर निगलने में तकलीफ़ तो होगी। पर ये बदलाव उनकी इजाज़त का मोहताज नहीं है। और न ही ये परिवर्तन मुँह ताकेगा सरकार-प्रशासन का। सच है कि एक तरफ़ निर्भया के जैसे और कई औरतों को बर्बरता से गुज़रना पड़ रहा है। पर बरसों से दबी जुबानें खुल कर द्रोह भी कर रही हैं। जिन यातनाओं को सहते जाना था पर जिनके बारे में बात करना हराम था, उन्हें आज पहले से कहीं ज़्यादा बेझिझक चर्चा, पुलिस प्राथमिकी और अदालत में लाया जा रहा है।
सालों औरतें इसी दुनिया से जूझती आई हैं । किसी जादुई बदलाव को लेकर हमारे मन में कोई ख़याली पुलाव नहीं पक रहे। पर नाउम्मीदी का रास्ता भी हमारे लिए खुला नहीं अगर हम स्वाभिमान की ज़िंदगी जीने चाहते हैं। देश का तो पता नहीं, पर औरतें बदल रही हैं। और जो बदलाव हमारे अंदर फूट रहा है, उसकी जड़ें जहाँ-जहाँ फैल रही हैं, वो ज़मीन, वो सड़क हमारी होती जा रही है।
First published in News 18, 15 Dec 2017.
My ability to read Hindi is unfortunately laboured. Power to you and every voice that has collectively moved some mountains of patriarchy in 2017.
ReplyDelete