Saturday, 29 March 2014

विस्थापन बनाम पुनर्विकास: कठपुतली कौलोनी की कहानी


पश्चिम दिल्ली में शादीपुर मेट्रो स्टेशन के पास स्थित कठपुतली कौलोनी में कई परिवार ५० साल से भी पहले से बसे हुए हैं। देश के विभिन्न प्रदेशों के घुम्नतु कलाकारों के लिए १९७८ में यहाँ भूले-बिसरे कलाकार सहकारी समिति बनाई गई। यूनेस्को ने इनके लिए सेन्टर और एक स्कूल की शुरुआत की। धीरे-धीरे और व्यवसाय के लोग भी जुड़ते चले गये। आज की तरीख  में करीब १५०००-१७००० लोगों को लिए ३२७४ परिवार यहाँ रहते हैं। उस वक्त इन लोगों ने खुद बियाबान का विकास कर, ऊबड़-खाबड ज़मीन को समतल कर पूरे इलाके को रहने के लायक बनाया। पर पिछले दिनों इस विकसित ज़मीन का पुनर्विकास करने के नाम पर दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने कठपुतली वासियों को अपने घरों को खाली कर ट्रान्जिट कैम्प में जाने का फरमान जारी कर दिया। कहा गया कि कुछ समय बाद उन्हें रहेजा बिल्डर्स द्वारा निर्मित फ़्लैट मुहैय्या कराए जाएंगे।

सितम्बर २०१३ में अरुणा राय, रघु राय, शबाना आज़मी, सोनल मानसिंह, अञ्जलि एला मेनन और राजीव सेठी जैसे कलाकारों व सामाजिक कर्यकर्ताओं ने मिलकर प्रधान मंत्री को एक चिठ्ठी भेजी थी जिसमें कठपुतली कौलोनी की पुनर्विकास योजना को रोकने की बात थी। जवाब आया था कि गृह मंत्रालय इस मुद्दे पर विचार कर रहा है। और फिर अचानक ही पता चला कि पुनर्वास का काम शुरु हो गया है।

अपने घरों को न छोड़ने के लिए लोग डीडीए और पुलिस के सामने डटे रहे। कौलोनी के कुछ लोगों को पीटा भी गया, धमकियाँ मिलीं। लोगों में फिर भी उम्मीद रही कि कोर्ट जाने पर कुछ राहत मिलेगी। पर खतरा केन्द्र की मदद से दायर की गई कौलोनीवासियों की याचिका को हाई कोर्ट ने खारिज़ कर दिया और विस्थापन पर कोई स्थगन आदेश (स्टे औडर) नहीं दिया।

बगैर जनसहमति डीडीए की मनमानी 

सन् २००८ में डीडीए ने कौलोनी में एक सर्वेक्षण कराया। लोगों ने इसके विषय में जब और जानकारी चाही तो कहा गया कि कोई पक्की, निश्चित सूची अभी बनाई नहीं गई है। डीडीए ने सर्वे सम्बन्धित अपने ही निर्देशों का उल्लंघन किया, जिसमें साफ लिखा है कि पहले सर्वे स्थल पर एक सूचना लगाई जाएगी, मोटे तौर पर सर्वे का एक प्रारूप, एक ढाँचा बनेगा, पूरी प्रक्रिया का एक विडियो बनेगा, सभी परिवारों की तस्वीरें, उनके दस्तखत या अंगूठे के निशान लिए जाएंगे। सूचना के लिए कई दफा भागदौड और आरटीआई लगाने के बाद लोगों के हाथ बस इतनी अधपकी जानकारी लगी कि शायद २८०० घरों को बनाने की कोई योजना है, जबकि असल में कहीं ज्यादा मकानों की ज़रुरत थी। उन्हें खबर भी नहीं हुई और सर्वे, रिपोर्ट, निविदा, आदि के बाद ४ सितम्बर २००९ को रहेजा बिल्डर्स को काम सौंप दिया गया।

कुछ लोगों ने डीडीए के दफ्तर के चक्कर लगाकर अपनी अगली पीढीयों के परिवारों/ छूटे हुए परिवारों की गिनती की बात की पर डीडीए ने ध्‍यान नहीं दिया।   

रहेजा बिल्डर्स और डीडीए

कठपुतली कौलोनी के साथ किए गए एक बहुत बडे धोखे में सन् २००९ में डीडीए ने चुपचाप १४ एकड़ ज़मीन रहेजा बिल्डर्स को उनसे ६ करोड़ रुपये का फुटकर लेकर बेच दी। २०११ में प्रोजेक्ट को औडिट करते हुए खुद महालेखापरीक्षक (औडिटर जेनरल) ने इस ज़मीन की कीमत १०४३.२ करोड़ लगाई थी, जिसके मात्र ५ प्रतिशत पर डीडीए ने इसे बेच दिया। जब लोगों के सामने बात आई तो उन्हें गहरा सदमा लगा। उनका कहना था कि हालांकि ये उनकी अपनी ज़मीन थी, अगर ज़रुरत पडती तो वे खुद उतने पैसे इकठठा कर उसे खरीद लेते।

रहेजा बताते हैं कि इस प्रोजेक्ट का काम राजीव आवास योजना के तहत चल रहा है, जबकि प्रोजेक्ट योजना के नियमों से बिल्कुल मेल नहीं खाता। ज़मीन के पाँच में से चार हिस्से व्यवसायिक केंद्रों और लक्ज़री अपार्टमेन्ट के लिए रखे गए हैं।

इन ऊँची इमारतों-मौलों और कठपुतलिवालों के २१ स्क़ुऐर मीटर के दडबों के बीच एक दीवार खडी की जाएगी। कठपुतली के लोगों ने रहेजा के दी गई सीडी और लहलहाते पेड़ों के बीच उगे फ़्लैट के नमूने की फोटो दिखाते हुए कहा कि वे जानते हैं सच्चाई इससे बहुत परे होगी। उन्हें तभी डीडीए-रहेजा पर शक हो गया था जब वे फ़्लैटों का प्रचार तो कर रहे होते थे पर ये साफ नहीं करते थे कि उनका क्षेत्रफल क्या होगा। एक प्रिन्ट-आउट दिखाते हुए कौलोनी के एक युवा सदस्य ने कहा कि रहेजा ने नमूने कि उल्टी फोटो भेजी है जिसमें फ़्लैट आगे और मौल-अपार्टमेन्ट पीछे है, जबकि सच्चाई बिल्कुल विपरीत है. रहेजा के बनाए गए दूसरे पुनर्विकास फ़्लैटों को देखकर भी कठपुतली वालों को विश्वास हो गया कि उनके मकानों की हालत भी बुरी होगी। उन्हें डर है दीवार के पीछे छिपे उनके मकानों को हवा-रोशनी भी ठीक से मयस्सर ना होगी और घुटन में जीना पड़ेगा। 

ट्रान्जिट कैम्प की हालत 

मोहल्लेवालों को ४ किलोमीटर दूर आनन्द पर्बत में बनाये गए ट्रान्जिट कैम्प में जाने के लिए कहा गया है. जो चन्द परिवार वहाँ गए उनसे  अँग्रेजी में लिखे हलफ़नामे पर दस्तखत कराए गए, जिसे ज्यादातर लोग नहीं समझ पाये। उसमें जगह या वहाँ रहने की अवधि को लेकर कोई साफ बात नहीं थी. बाद में उसका हिन्दी अनुवाद कराया गया। कैम्प की स्थिति देखने के बाद वहाँ गए हुए कुछ लोग भी ये चाहने लगे कि वापस आ जाएँ।

कुछ लोग कैम्प का मुआयाना करने गए. कैम्प के बारे में बताते हुए गमगीन माहौल को हल्का बनने की कोशिश में एक महिला ने पीयूडीआर की टीम से कहा, 'घरों के बीच की दीवार इतनी पतली है कि अगर हम पति-पत्नी में झगडा हुआ तो हम पड़ोसी के घर में गिर जाएंगे।' दूसरी महिला का सवाल था, 'हमारे बच्चे कहाँ रहेंगे? सबके सोने की जगह ही नहीं होगी। बर्तन, चूल्हा, ये सब हमारे सर पर होगा।' किसी और ने आँखों-देखी बयान की, 'हम तूफान के बाद गए तो देखा कई छतें उड़ चुकी थीं। उन्हें दोबारा बनाया जा रहा था. ऐसे में क्या हम रोज़ वहाँ अपने घर नये सिरे से बनाएंगे?'

स्कूल-अस्पताल जैसी ज़रुरतों का कोई इंतजाम नहीं। लोगों में ये डर भी है कि एक बार कौलोनी छोड़ने पर उन्हें वापस नहीं आने दिया जाएगा और दिल्ली की बाकी झुग्गियों की तरह उन्हें भी शहर के बाहरी कोनों में धकेल दिया जाएगा। 

फ़्लैट की दिक्कतें 

कौलोनी में रहनेवाले कठपुतली कलाकारों के पास १५-३० फुट के पुतले हैं, लम्बी रस्सियाँ हैं जिनके साथ खेल के अभ्यास करने होते हैं, विशाल ढोल-नगाड़े हैं. कुछ लकडी के लम्बे-चौड़े दरवाज़ों को बनाने का काम करते हैं। क्या ये सब एक डब्बे फ़्लैट में समा जाएंगे? अगर नहीं, तो क्या कौलोनीवासियों के लिए उनके नये फ़्लैटों से मेल खाते नये व्यवसायों का इंतजाम किया गया है? क्या उनसे पूछा गया है कि वे अपना पुराना काम छोड़ने के लिए तैयार हैं या नहीं?

प्लौट होने से परिवारों को ये सुविधा थी कि परिवार बड़ा होने पर वे और मन्जिल बना लेते थे।पर एक नीची छत वाले छोटे फ़्लैट में एक बडे परिवार का रह पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

ट्रान्जिट कैम्प की तरह फ़्लैट के सम्बन्ध में भी बिजली-पानी जैसी ज़रुरतों के पक्के इन्तजाम को लेकर कोई आश्वासन या सबूत नहीं दिए गए हैं

ऊँची मज़िलों पर चढ़ कर जाना एक अलग मुश्किल होगी। किसी ने अपने घर के बुज़ुर्गों की बात  करते हुए कहा, 'हमारे माँ-बाप में से कितने ऐसे हैं जो आजतक मेट्रो में सफर करने से डरते हैं लिफ्ट में तो वो बेहोश ही हो जाएंगे। और अगर ऐसे में कभी लिफ्ट खराब होती है या बिजली जाने से बीच में ही फँसती  है, तो पता नहीं क्या होगा।'

कलाकारविहीन कठपुतली कौलोनी की विडम्बना 

दिल्ली जैसे महानगर में पहले ही परम्परागत कलाकारों के लिए अपना जीवन-यापन करना आसान नहीं था, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर इन्हें कहीं बढ़कर सराहा जाता रहा है। कठपुतली कौलोनी एक ऐसी जगह है जहाँ एक-दूसरे के साथ की वजह इन्हें खुद को और अपनी कला को जिन्दा रखने के लिए संबल मिलता आया है। बिखरने या वापस अपने राज्यों के लिए कूच करने को मजबूर होने पर इनकी संगठित शक्ति को भारी धक्का पहुंचेगा। कौलोनी में रहने वाले संगीत नाटक अकादमी द्वारा पुरस्कृत कलाकार पूरन भाट के पास भी पुनर्विकास का एक नक्शा है। इसमें कला प्रदर्शन के लिए मंच, अभ्यास की जगह, कलाकारों से प्रशिक्षण लेने की सम्भावना, सब शमिल हैं। कौलोनी में जो लोग कलाकार नहीं हैं, वे साथ में अपनी दुकानें चला सकते हैं। पूरन का सपना है कौलोनी को एक ऐसी जगह बनाना जहाँ विभिन्न प्रकार की कलायें साथ हों, जिससे कलाकारों को ही नहीं, सरकार के कला व पर्यटन विभागों, और अंततः देश की अर्थव्यवस्था को भी लाभ हो।

पर इससे डीडीए और रहेजा बिल्डर्स को क्या फायदा?

हक की बात 

ऐसा नहीं है कि कठपुतली कौलोनी में सिर्फ कलाकार ही रहते हैं। दूसरे पेशे-कारोबार करनेवालों की भी यहाँ एक बडी संख्या है। जब यहाँ के लोगों ने २५ स्क़ुऐर मीटर के प्लौट आवंटन की माँग की तो एकजुट होकर सबके लिए की, चाहे कोई कौलोनी  में पहले बसा हो या बाद में।

कानूनी तौर पर भी ये पुनर्विकास कार्यक्रम गलत है क्योंकि ना ही इसे दिल्ली नगर कला आयोग ने पास किया है और ना ही इसको पर्यावरण निकासी मिली है।

झुग्गी में रहनेवालों को घुसपैठियों की तरह देखा जाता है। शहर और सरकार बडी सहूलियत से ये भूल जाते हैं कि पुनर्विकास के चलन से बहुत पहले विकास की ज़रुरत को पूरा करने के लिए हज़ारों-लाखों लोगों को शहर में लाया गया था। दिल्ली की सड़कें, पुल, इमारतें, फ़्लाइओवर, कौमनवेल्थ गेम्स विलेज, मेट्रो न्यूनतम दरों पर खरीदे गए इनके खून-पसीने की उपज है। इन लोगों के लिए मास्टर प्लैन के हिसाब से १९६२-२०११ के बीच २३.६ लाख मकान बनने थे। इनमें से ११ लाख बने। बाकी घरों का हिसाब देने की फुर्सत डीडीए को कब होगी? अगर ये मकान बने होते, तो क्या दिल्ली के विकास के लिए इस्तेमाल किए गए इतने ही लोग सड़कों और खुद की बनाई झुग्गियों में जी रहे होते, जिन्हें देख उस विकास का भोग कर रही दिल्ली गश खाने लगती है? 

कठपुतली के लोगों ने तो खुद अपनी ज़मीन का विकास कर उसे इन्सानों के बसने के लायक बनाया है, जिसमें होने वाले खर्चे की बात डीडीए या रहेजा ने कभी नहीं उठाई। 

चाहे किसी भी तर्क या हिसाब से देखा जाए, कठपुतली कौलोनी वहाँ के बाशिन्दों की ही है। और अगर हर ताकत को अपने खिलाफ पाकर वे आज भी अपनी ज़मीन की माँग को लेकर खड़े हैं, तो ये दया की गुहार या रहम की अर्जी नहीं, उनके हक की लड़ाई है।


    First published in Morcha. 

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