Sunday, 19 November 2006

सूरज, तुम मुझे जला क्यों नहीं देते?

सूरज, तुम मुझे जला क्यों नहीं देते?
इसी बहाने मेरे भीतर भी कुछ शोले भड़कें।

अपनी तपन से मुझे पिघला क्यों नहीं देते?
मुझे भी वहम हो एकबारगी, कि मेरा दिल मोम का है।

जो बर्दाश्त न कर पाऊँ तुम्हारी गर्मी,
टपकने दो माथे से खून, पसीने की जगह
पता तो चले, अगर मेरे खून का रंग सचमुच लाल है?

प्यास से जब खिच जाएं मेरे गले कि नसें,
देखूँगी, क्या मेरे बदन पर भी उग आते हैं कांटे?

सूरज, तुम मुझे जला क्यों नहीं देते?
राख भी हो जाऊं अगर, शायद बच जाये कुछ कभी न ठंडी पड़ने वाली चिंगारियां?

First published in Diamond India.



6 comments:

  1. its been a long time since i read a decent Hindi poem...this one's great!

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