आदरणीय
भारत जी,
बचपन
में सुना था कि भारत हमारी
माता है। पर इस माता की छाँव
में रहने के दिशा-निर्देश
हम महिलाओं को अधिकतर
पिता-पति-भ्राता
आदि भांति-भांति
के पुरुष देते हैं। अतः यह
पत्र आपको पिता समझ कर ही लिख
रही हूँ। एक चर्च के "फ़ादर"
की
तरह आप भी इसे मेरा "कन्फ़ेशन" ही
समझें। आशा है अपनी गलतियों
को मानने से मेरे दिल को सुकून
भी मिलेगा और आपकी माफ़ी भी।
कुछ
समय
पहले
देश
में
किसी राजनीतिक मुद्दे को लेकर
खूब
बहसा-बहसी
का
माहौल
था।
मैं भी
अपना
आपा
खो
उसमें
कूद
पड़ी।
फिर
कुछ
सज्जनों
ने
प्यार
से
याद
दिलाया,
"जितना
कीचड़
दूसरों
पर
उछालेंगी,
उतना
ही
आप
पर
भी
गिरेगा।"
औरत
होने
के
नाते
इतना
तो
सीखा
ही
था
इस देश में बचपन
से
कि
अपनी
इज्ज़त
अपने
हाथ
होती
है।
है
कि
नहीं?
अब
औरतें
तो चूहे,
छिपकली,
तिलचट्टे
को
देख
कर,
"उई,
माँ!"
कर
उछल
जाती
हैं।
जिस
अनजान
पुरुष
के
साये
से
कोसों
भागती
हैं,
लोड
शेडिंग
के
दौरान
दांतों
से
अपना
हाथ
काटते
हुए
उसी
भलेमानस
की
बाहों
में
टूट
कर
जा
गिरती हैं।
ऐसे
में
अगर राष्ट्र-सेना-अर्थव्यवस्था-कश्मीर-पाकिस्तान
जैसी
गूढ़
बातों
पर
वे अपनी
प्यारी
तोतली
बोली
में
कुछ
कहेंगी,
तो
अपना
मज़ाक
ही
बनवाएंगी
ना?
या
फिर
नाहक
ही फड़फड़ाती
भुजाओं
वाले
उन
पुरुषों
के
क्रोध
का
शिकार
बनेंगी
जिन्होनें
खून-पसीना
एक
कर
पूरी
वसुन्धरा
को
अपने
कंधों
पर
उठा
रखा
है।
मुझ
निरी
से
परी,
दुनियादारी
के
ज्ञान
में
लिप्त,
कुछ
महिलाओं
ने
भी
समझाया
कि
मैं
बेशक़
समाज
में
शिरकत
करूँ
पर
सही
नेता
चुनकर,
उसके
मार्गदर्शन
में,
जो
मुझे
सवाल-संदेह-सोच
के
भवसागर
से
निकाल
सीधे
सही-ग़लत
परोस
कर
खिला
दे।
अपने
अज्ञान
को
मानते
हुए
मैंने
सोचा
कि
अब
अपने
नारीत्व
के
गौरव
और
उसकी महिमा
का
ध्यान
रखते
हुए
ही
सार्वजनिक
मंचों
पर
अपने
शब्दों
का
प्रयोग
करूँगी।
कदम
कविता
की
ओर
बढ़े,
खासकर
प्रेम
कविता। सोचा
इससे
मेरा
स्त्रीत्व
खूब
सुशोभित
होगा:
प्रेम,
व्यथा,
लज्जा, बलिदान अन्तहीन
प्रतीक्षा
.
. . अहा!
इन्हीं
आभूषणों
से
तो
एक
स्त्री
की
आँखों
में
विवशता
का ऐसा
समंदर
उमड़ता
है
कि
वे दार्शनिकों
की
प्रेरणा
बन
जाती
है।
दवात
की
पहली
शीशी
खत्म
भी
ना
हुई
थी
कि
कुछ
महानुभावों
के
रोष
भरे
संदेशों
ने
फिर
से
मुझे
दाँतों
तले
उंगली
दबा,
"हाय,
दईया!
ये
क्या
कर
डाला!"
कहने
पर
बाध्य
कर
दिया।
एक
महोदय
की
भृकुटि
इस
बात
पर
तनी
थी
कि
जो
औरत
ऐसी निर्लज्जता
से
अपने
व्यक्तिगत
जीवन
की
परतें
खोल
सकती
हैं,
वो
क्षति
पहुँचाने
वालों
को
सीधा
निमंत्रण
दे
रही
होती
है।
बात
मार्के
की
थी।
जब
महिलाओं
के
व्यक्तिगत
जीवन
के
हर
पहलू
को
कठिन
श्रम
से
ढूँढ-ढूँढ
कर,
जन्म
लेने
से
जन्म
देने
तक
के हर
एक
मुद्दे
पर
पहले
ही
रीति-धर्मानुसार
नियम
बना
दिए
गए
हैं,
तो
खुद
इन
निजी
मामलों
की
बखिया
उधेड़ने
का
क्या
ही
औचित्य
है? किसी
और मित्र
ने
क्षुब्ध
होकर कहा
कि
कई
दिनों
तक
मेरे
लेखन
की
समीक्षा
करने
के
बाद
वे यही
कह
सकते
हैं
कि मैं
समझदारी
से
अपने
रिश्ते
संभालूँ।
अपनी
कुण्ठाओं
को
मिटाने
के
लिए
कविताओं
के
ज़रिये
अपनी
इच्छाओं
को
जीने
की
कोशिश
ना
करूँ।
मेरी
करनी
से
उनको
इतना
व्यथित
और
कुपित
देखकर
मैं
काँप
उठी।
ओह,
अबोध
बालिका! क्या
करने
चली
थी
और
क्या
कर
बैठी?
क्या
गद्य
और
क्या
पद्य?
महिला
की
उक्ति
का
तो
स्वरूप ही
ऐसा
है
कि
मर्यादा
रेखा
को
लांघने
के
लिए
प्रतिपल
आतुर
रहती
है।
सो
ग्लानि
और
लाज
से
भर
कर
ये
अपराध-स्वीकरण
लिख
रही
हूँ।
नारी
तू
गलतियों
का
पुतला
है
और
पुरुषों
के
लिए
कुमार्ग
का
रास्ता,
जिस
पर
चल
भले-चंगे
भोले-भंडारी
भी बन
बैठते
हैं
गुनाहों
के
देवता!
लानत
है
मुझ
अभागी पर
जो
इस
बार
मेरे
एक
भी शब्द
से
किसी
महापुरुष
का
पाचन
बिगड़े!
उम्मीद
है आप हमेशा की तरह मुझे नादान
समझेंगे,
और
मेरी भूल को भुला देंगे,
ताकि
मैं ख़ुद को भुला कर एक आदर्श
स्त्री,
पुत्री,
पत्नी,
इत्यादि
बन सकूँ।
चरण
स्पर्श,